2. बातें करने में उतावली न करना, और न अपने मन से कोई बात उतावली से परमेश्वर के साम्हने निकालना, क्योंकि परमेश्वर स्वर्ग में हैं और तू पृथ्वी पर है; इसलिये तेरे वचन थोड़े ही हों॥
3. क्योंकि जैसे कार्य की अधिकता के कारण स्वप्न देखा जाता है, वैसे ही बहुत सी बातों का बोलने वाला मूर्ख ठहरता है।
4. जब तू परमेश्वर के लिये मन्नत माने, तब उसके पूरा करने में विलम्ब न करना; क्यांकि वह मूर्खों से प्रसन्न नहीं होता। जो मन्नत तू ने मानी हो उसे पूरी करना।
5. मन्नत मान कर पूरी न करने से मन्नत का न मानना ही अच्छा है।