21. यहोवा सुनकर क्रोध से भर गया, तब याकूब के बीच आग लगी, और इस्त्राएल के विरुद्ध क्रोध भड़का;
22. इसलिए कि उन्होंने परमेश्वर पर विश्वास नहीं रखा था, न उसकी उद्धार करने की शक्ति पर भरोसा किया।
23. तौभी उसने आकाश को आज्ञा दी, और स्वर्ग के द्वारों को खोला;
24. और उनके लिये खाने को मन्ना बरसाया, और उन्हे स्वर्ग का अन्न दिया।
25. उन को शूरवीरों की सी रोटी मिली; उसने उन को मनमाना भोजन दिया।
26. उसने आकाश में पुरवाई को चलाया, और अपनी शक्ति से दक्खिनी बहाई;
27. और उनके लिये मांस धूलि की नाईं बहुत बरसाया, और समुद्र के बालू के समान अनगिनित पक्षी भेजे;
28. और उनकी छावनी के बीच में, उनके निवासों के चारों ओर गिराए।
29. और वे खाकर अति तृप्त हुए, और उसने उनकी कामना पूरी की।
30. उनकी कामना बनी ही रही, उनका भोजन उनके मुंह ही में था,
31. कि परमेश्वर का क्रोध उन पर भड़का, और उसने उनके हृष्टपुष्टों को घात किया, और इस्त्राएल के जवानों को गिरा दिया॥
32. इतने पर भी वे और अधिक पाप करते गए; और परमेश्वर के आश्चर्यकर्मों की प्रतीति न की।
33. तब उसने उनके दिनों को व्यर्थ श्रम में, और उनके वर्षों को घबराहट में कटवाया।
34. जब जब वह उन्हे घात करने लगता, तब तब वे उसको पूछते थे; और फिरकर ईश्वर को यत्न से खोजते थे।
35. और उन को स्मरण होता था कि परमेश्वर हमारी चट्टान है, और परमप्रधान ईश्वर हमारा छुड़ाने वाला है।
36. तौभी उन्होंने उससे चापलूसी की; वे उससे झूठ बोले।
37. क्योंकि उनका हृदय उसकी ओर दृढ़ न था; न वे उसकी वाचा के विषय सच्चे थे।
38. परन्तु वह जो दयालु है, वह अधर्म को ढांपता, और नाश नहीं करता; वह बारबार अपने क्रोध को ठण्डा करता है, और अपनी जलजलाहट को पूरी रीति से भड़कने नहीं देता।
39. उसको स्मरण हुआ कि ये नाशमान हैं, ये वायु के समान हैं जो चली जाती और लौट नहीं आती।