30. तब वे उनके बैठने से आनन्दित होते हैं, और वह उन को मन चाहे बन्दर स्थान में पहुंचा देता है।
31. लोग यहोवा की करूणा के कारण, और उन आश्चर्यकर्मों के कारण जो वह मनुष्यों के लिये करता है, उसका धन्यवाद करें।
32. और सभा में उसको सराहें, और पुरनियों के बैठक में उसकी स्तुति करें॥
33. वह नदियों को जंगल बना डालता है, और जल के सोतों को सूखी भूमि कर देता है।
34. वह फलवन्त भूमि को नोनी करता है, यह वहां के रहने वालों की दुष्टता के कारण होता है।
35. वह जंगल को जल का ताल, और निर्जल देश को जल के सोते कर देता है।
36. और वहां वह भूखों को बसाता है, कि वे बसने के लिये नगर तैयार करें;
37. और खेती करें, और दाख की बारियां लगाएं, और भांति भांति के फल उपजा लें।
38. और वह उन को ऐसी आशीष देता है कि वे बहुत बढ़ जाते हैं, और उनके पशुओं को भी वह घटने नहीं देता॥
39. फिर अन्धेर, विपत्ति और शोक के कारण, वे घटते और दब जाते हैं।
40. और वह हाकिमों को अपमान से लाद कर मार्ग रहित जंगल में भटकाता है;
41. वह दरिद्रों को दु:ख से छुड़ा कर ऊंचे पर रखता है, और उन को भेड़ों के झुंड सा परिवार देता है।