20. मैं बहुत दिनों से तेरे हित के उपदेश और ज्ञान की बातें लिखता आया हूं,
21. कि मैं तुझे सत्य वचनों का निश्चय करा दूं, जिस से जो तुझे काम में लगाएं, उन को सच्चा उत्तर दे सके॥
22. कंगाल पर इस कारण अन्धेर न करना कि वह कंगाल है, और न दीन जन को कचहरी में पीसना;
23. क्योंकि यहोवा उनका मुकद्दमा लड़ेगा, और जो लोग उनका धन हर लेते हैं, उनका प्राण भी वह हर लेगा।
24. क्रोधी मनुष्य का मित्र न होना, और झट क्रोध करने वाले के संग न चलना,
25. कहीं ऐसा न हो कि तू उसकी चाल सीखे, और तेरा प्राण फन्दे में फंस जाए।
26. जो लोग हाथ पर हाथ मारते, और ऋणियों के उत्तरदायी होते हैं, उन में तू न होना।
27. यदि भर देने के लिये तेरे पास कुछ न हो, तो वह क्यों तेरे नीचे से खाट खींच ले जाए?
28. जो सिवाना तेरे पुरखाओं ने बान्धा हो, उस पुराने सिवाने को न बढ़ाना।
29. यदि तू ऐसा पुरूष देखे जो कामकाज में निपुण हो, तो वह राजाओं के सम्मुख खड़ा होगा; छोटे लोगों के सम्मुख नहीं॥