3. और काम करने में प्रवीणता, और धर्म, न्याय और सीधाई की शिक्षा पाए;
4. कि भोलों को चतुराई, और जवान को ज्ञान और विवेक मिले;
5. कि बुद्धिमान सुन कर अपनी विद्या बढ़ाए, और समझदार बुद्धि का उपदेश पाए,
6. जिस से वे नितिवचन और दृष्टान्त को, और बुद्धिमानों के वचन और उनके रहस्यों को समझें॥
7. यहोवा का भय मानना बुद्धि का मूल है; बुद्धि और शिक्षा को मूढ़ ही लोग तुच्छ जानते हैं॥
8. हे मेरे पुत्र, अपने पिता की शिक्षा पर कान लगा, और अपनी माता की शिक्षा को न तज;
9. क्योंकि वे मानो तेरे सिर के लिये शोभायमान मुकुट, और तेरे गले के लिये कन्ठ माला होंगी।
10. हे मेरे पुत्र, यदि पापी लोग तुझे फुसलाएँ, तो उनकी बात न मानना।
11. यदि वे कहें, हमारे संग चल कि, हम हत्या करने के लिये घात लगाएं हम निर्दोषों की ताक में रहें;
12. हम अधोलोक की नाईं उन को जीवता, कबर में पड़े हुओं के समान समूचा निगल जाएं;
13. हम को सब प्रकार के अनमोल पदार्थ मिलेंगे, हम अपने घरों को लूट से भर लेंगे;
14. तू हमारा साझी हो जा, हम सभों का एक ही बटुआ हो,
15. तो, हे मेरे पुत्र तू उनके संग मार्ग में न चलना, वरन उनकी डगर में पांव भी न धरना;
16. क्योंकि वे बुराई की करने को दौड़ते हैं, और हत्या करने को फुर्ती करते हैं।
17. क्योंकि पक्षी के देखते हुए जाल फैलाना व्यर्थ होता है;
18. और ये लोग तो अपनी ही हत्या करने के लिये घात लगाते हैं, और अपने ही प्राणों की घात की ताक में रहते हैं।
19. सब लालचियों की चाल ऐसी ही होती है; उनका प्राण लालच ही के कारण नाश हो जाता है॥
20. बुद्धि सड़क में ऊंचे स्वर से बोलती है; और चौकों में प्रचार करती है;