7. फिर लड़कों समेत लिआ: निकट आई, और उन्होंने भी दण्डवत की: पीछे यूसुफ और राहेल ने भी निकट आकर दण्डवत की।
8. तब उसने पूछा, तेरा यह बड़ा दल जो मुझ को मिला, उसका क्या प्रयोजन है? उसने कहा, यह कि मेरे प्रभु की अनुग्रह की दृष्टि मुझ पर हो।
9. ऐसाव ने कहा, हे मेरे भाई, मेरे पास तो बहुत है; जो कुछ तेरा है सो तेरा ही रहे।
10. याकूब ने कहा, नहीं नहीं, यदि तेरा अनुग्रह मुझ पर हो, तो मेरी भेंट ग्रहण कर: क्योंकि मैं ने तेरा दर्शन पाकर, मानो परमेश्वर का दर्शन पाया है, और तू मुझ से प्रसन्न हुआ है।
11. सो यह भेंट, जो तुझे भेजी गई है, ग्रहण कर: क्योंकि परमेश्वर ने मुझ पर अनुग्रह किया है, और मेरे पास बहुत है। जब उसने उस को दबाया, तब उस ने भेंट को ग्रहण किया।
12. फिर ऐसाव ने कहा, आ, हम बढ़ चलें: और मैं तेरे आगे आगे चलूंगा।
13. याकूब ने कहा, हे मेरे प्रभु, तू जानता ही है कि मेरे साथ सुकुमार लड़के, और दूध देने हारी भेड़-बकरियां और गायें है; यदि ऐसे पशु एक दिन भी अधिक हांके जाएं, तो सब के सब मर जाएंगे।
14. सो मेरा प्रभु अपने दास के आगे बढ़ जाए, और मैं इन पशुओं की गति के अनुसार, जो मेरे आगे है, और लड़के बालों की गति के अनुसार धीरे धीरे चल कर सेईर में अपने प्रभु के पास पहुंचूंगा।
15. ऐसाव ने कहा, तो अपने संग वालों में से मैं कई एक तेरे साथ छोड़ जाऊं। उसने कहा, यह क्यों? इतना ही बहुत है, कि मेरे प्रभु की अनुग्रह की दृष्टि मुझ पर बनी रहे।
16. तब ऐसाव ने उसी दिन सेईर जाने को अपना मार्ग लिया।
17. और याकूब वहां से कूच कर के सुक्कोत को गया, और वहां अपने लिये एक घर, और पशुओं के लिये झोंपड़े बनाए: इसी कारण उस स्थान का नाम सुक्कोत पड़ा॥
18. और याकूब जो पद्दनराम से आया था, सो कनान देश के शकेम नगर के पास कुशल क्षेम से पहुंच कर नगर के साम्हने डेरे खड़े किए।
19. और भूमि के जिस खण्ड पर उसने अपना तम्बू खड़ा किया, उसको उसने शकेम के पिता हमोर के पुत्रों के हाथ से एक सौ कसीतों में मोल लिया।
20. और वहां उसने एक वेदी बना कर उसका नाम एलेलोहे इस्राएल रखा॥