3. वैसा ही मैं अनर्थ के महीनों का स्वामी बनाया गया हूँ, और मेरे लिये क्लेश से भरी रातें ठहराई गई हैं।
4. जब मैं लेट लाता, तब कहता हूँ, मैं कब उठूंगा? और रात कब बीतेगी? और पौ फटने तक छटपटाते छटपटाते उकता जाता हूँ।
5. मेरी देह कीड़ों और मिट्टी के ढेलों से ढकी हुई है; मेरा चमड़ा सिमट जाता, और फिर गल जाता है।
6. मेरे दिन जुलाहे की धड़की से अधिक फुतीं से चलने वाले हैं और निराशा में बीते जाते हैं।
7. याद कर कि मेरा जीवन वायु ही है; और मैं अपनी आंखों से कल्याण फिर न देखूंगा।
8. जो मुझे अब देखता है उसे मैं फिर दिखाई न दूंगा; तेरी आंखें मेरी ओर होंगी परन्तु मैं न मिलूंगा।
9. जैसे बादल छटकर लोप हो जाता है, वैसे ही अधोलोक में उतरने वाला फिर वहां से नहीं लौट सकता;
10. वह अपने घर को फिर लौट न आएगा, और न अपने स्थान में फिर मिलेगा।
11. इसलिये मैं अपना मुंह बन्द न रखूंगा; अपने मन का खेद खोल कर कहूंगा; और अपने जीव की कड़ुवाहट के कारण कुड़कुड़ाता रहूंगा।