2. भला होता कि मेरा खेद तौला जाता, और मेरी सारी विपत्ति तुला में धरी जाती!
3. क्योंकि वह समुद्र की बालू से भी भारी ठहरती; इसी कारण मेरी बातें उतावली से हूई हैं।
4. क्योंकि सर्वशक्तिमान के तीर मेरे अन्दर चुभे हैं; और उनका विष मेरी आत्मा में पैठ गया है; ईश्वर की भयंकर बात मेरे विरुद्ध पांति बान्धे है।
5. जब बनैले गदहे को घास मिलती, तब क्या वह रेंकता है? और बैल चारा पाकर क्या डकारता है?
6. जो फीका है वह क्या बिना नमक खाया जाता है? क्या अण्डे की सफेदी में भी कुछ स्वाद होता है?
7. जिन वस्तुओं को मैं छूना भी नहीं चाहता वही मानो मेरे लिये घिनौना आहार ठहरी हैं।
8. भला होता कि मुझे मुंह मांगा वर मिलता और जिस बात की मैं आशा करता हूँ वह ईश्वर मुझे दे देता!
9. कि ईश्वर प्रसन्न हो कर मुझे कुचल डालता, और हाथ बढ़ा कर मुझे काट डालता!
10. यही मेरी शान्ति का कारण; वरन भारी पीड़ा में भी मैं इस कारण से उछल पड़ता; क्योंकि मैं ने उस पवित्र के वचनों का कभी इनकार नहीं किया।
11. मुझ में बल ही क्या है कि मैं आशा रखूं? और मेरा अन्त ही क्या होगा, कि मैं धीरज धरूं?
12. क्या मेरी दृढ़ता पत्थरों की सी है? क्या मेरा शरीर पीतल का है?
13. क्या मैं निराधार नहीं हूँ? क्या काम करने की शक्ति मुझ से दूर नहीं हो गई?
14. जो पड़ोसी पर कृपा नहीं करता वह सर्वशक्तिमान का भय मानना छोड़ देता है।
15. मेरे भाई नाले के समान विश्वासघाती हो गए हैं, वरन उन नालों के समान जिनकी धार सूख जाती है;