6. वह दुष्टों को जिलाए नहीं रखता, और दीनों को उनका हक देता है।
7. वह धर्मियों से अपनी आंखें नहीं फेरता, वरन उन को राजाओं के संग सदा के लिये सिंहासन पर बैठाता है, और वे ऊंचे पद को प्राप्त करते हैं।
8. ओर चाहे वे बेडिय़ों में जकड़े जाएं और दु:ख की रस्सियों से बान्धे जाएं,
9. तौभी ईश्वर उन पर उनके काम, और उनका यह अपराध प्रगट करता है, कि उन्होंने गर्व किया है।
10. वह उनके कान शिक्षा सुनने के लिये खोलता है, और आज्ञा देता है कि वे बुराई से परे रहें।
11. यदि वे सुन कर उसकी सेवा करें, तो वे अपने दिन कल्याण से, और अपने वर्ष सुख से पूरे करते हैं।
12. परन्तु यदि वे न सुनें, तो वे खड़ग से नाश हो जाते हैं, और अज्ञानता में मरते हैं।
13. परन्तु वे जो मन ही मन भक्तिहीन हो कर क्रोध बढ़ाते, और जब वह उन को बान्धता है, तब भी दोहाई नहीं देते,
14. वे जवानी में मर जाते हैं और उनका जीवन लूच्चों के बीच में नाश होता है।
15. वह दुखियों को उनके दु:ख से छुड़ाता है, और उपद्रव में उनका कान खोलता है।
16. परन्तु वह तुझ को भी क्लेश के मुंह में से निकाल कर ऐसे चौड़े स्थान में जहां सकेती नहीं है, पहुंचा देता है, और चिकना चिकना भोजन तेरी मेज पर परोसता है।
17. परन्तु तू ने दुष्टों का सा निर्णय किया है इसलिये निर्णय और न्याय तुझ से लिपटे रहते है।
18. देख, तू जलजलाहट से उभर के ठट्ठा मत कर, और न प्रायश्चित्त को अधिक बड़ा जान कर मार्ग से मुड़।
19. क्या तेरा रोना वा तेरा बल तुझे दु:ख से छुटकारा देगा?
20. उस रात की अभिलाषा न कर, जिस में देश देश के लोग अपने अपने स्थान से मिटाए जाते हैं।
21. चौकस रह, अनर्थ काम की ओर मत फिर, तू ने तो दु:ख से अधिक इसी को चुन लिया है।
22. देख, ईश्वर अपने सामर्ध्य से बड़े बड़े काम करता है, उसके समान शिक्षक कौन है?